गढ़वाल में थोक और थोकदार की अवधारणा

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thokdar houses

       आज के समय में गढ़वाली भाषा में “थोक” का मतलब परिवार या वंश वृक्ष के सदस्यों से है। थोक का प्रमुख या सबसे बड़ा सदस्य “थोकदार” कहलाता है।

 

प्रशासनिक दृष्टिकोण से थोकदार

प्रशासनिक दृष्टि से थोकदार का मतलब प्रधान या गांव के मुखिया का प्रमुख होता है। थोकदार का पद वंशानुगत होता था, लेकिन राज्य या उसके प्रशासक थोकदार को बदल सकते थे। वे नए थोकदार की नियुक्ति कर सकते थे या अतिरिक्त थोकदार भी जोड़ सकते थे।

 

थोकदार के पर्यायवाची नाम

  • सालन क्षेत्र – यहां थोकदार को “कामिन” कहा जाता था।
  • उत्तर गढ़वाल – यहां थोकदार को “सायणा” कहा जाता था।
  • भोटांतिक क्षेत्र (नीती-माणा और जोशीमठ) – यहां थोकदार को “बुढ़ा” या “बुढ़ेर” कहा जाता था।

थोकदार राज्य के परगना प्रमुख को रिपोर्ट करते थे।

 

थोकदार, सायणा, बुढ़ेर या बुढ़ा की जिम्मेदारियां

  1. कर संग्रह
    थोकदार का मुख्य कार्य राज्य के लिए कर (टैक्स) एकत्र करना होता था। थोकदार द्वारा संग्रहित कर को परगना प्रमुख के माध्यम से राज्य तक पहुंचाया जाता था।
  2. प्रशासनिक प्रबंधन
    थोकदार अपने क्षेत्र में विवादों को सुलझाने, कानून व्यवस्था बनाए रखने और गांव के अन्य विकास कार्यों की देखरेख करते थे।
  3. सेना की आपूर्ति
    युद्ध के समय थोकदारों को सैनिकों और अन्य आवश्यक सामग्रियों की आपूर्ति का दायित्व सौंपा जाता था।
  4. सामाजिक आयोजनों का नेतृत्व
    गांव के धार्मिक या सामाजिक आयोजनों में थोकदार का नेतृत्व होता था। शादी, त्यौहार, और अन्य उत्सवों में थोकदार की अनुमति और उपस्थिति महत्वपूर्ण मानी जाती थी।
 

थोकदार को मिलने वाले लाभ

  1. जमींदारी अधिकार
    थोकदार राज्य से जमीन का विशेष पट्टा (लैंड ग्रांट) प्राप्त करते थे। ये जमीनें उनकी आय का मुख्य स्रोत थीं।
  2. भेंट और उपहार
    • गांव के प्रधान से थोकदार को उपहार या भेंट मिलती थी।
    • शादी, बच्चों के जन्म, या गाय-भैंस के बछड़े देने पर थोकदार को विशेष भेंट मिलती थी।
  3. विशेष वस्त्र और मान्यता
    लोकगीत “जीतू बगड़वाल” से पता चलता है कि राज्य थोकदार को अंगरखा (ऊपरी वस्त्र) भेंट करता था। इससे उनकी सामाजिक स्थिति को और अधिक मान्यता मिलती थी।
  4. कर से छूट
    थोकदारों को उनकी खेती वाली जमीनों पर कर नहीं देना पड़ता था।
 

गढ़वाल के मैदानों में थोकदार

गढ़वाल के मैदानी इलाकों में थोकदार को “सरदार” कहा जाता था। मैदानों में इनका कार्यक्षेत्र भले ही अलग था, लेकिन उनकी भूमिका गांवों के थोकदारों के समान ही थी।

 

थोकदार और सामाजिक संरचना

  1. उच्च सामाजिक दर्जा
    थोकदार का पद उत्तराखंड में श्रेष्ठता का प्रतीक माना जाता था। अधिकांश थोकदार राजपूत समुदाय से थे, और ये समाज में ऊंचा दर्जा रखते थे।
  2. खस और राजपूत थोकदारों में अंतर
    • खस जाति के थोकदार स्वयं को “खसिया” कहलाने में झिझकते थे क्योंकि “खस” शब्द को निम्न दर्जा समझा जाता था।
    • थोकदार, जो राजपूत वंश के थे, उन्हें समाज में अधिक मान्यता प्राप्त थी।
    • विवाह संबंधों में भी राजपूत और खस थोकदारों में अंतर किया जाता था।
  3. राजा का समर्थन
    गढ़वाल के राजाओं ने प्रशासनिक निर्भरता कम करने के लिए तराई से अन्य राजपूत वंशों को आमंत्रित किया। यह खस राजपूतों की संभावित विद्रोह की आशंका के कारण किया गया।
 

समय के साथ हुए बदलाव

आज के समय में थोकदार और अन्य ग्रामीण प्रमुखों के बीच सामाजिक दूरी में कमी आई है। पुरानी परंपराएं और पदनाम धीरे-धीरे समाप्त हो रहे हैं। थोकदारों का प्रभाव अब भी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, लेकिन आधुनिक प्रशासनिक प्रणाली में इनकी भूमिका सीमित हो गई है।

 

प्रमुख थोकदारों के उपनाम

थोकदार के रूप में पहचाने जाने वाले प्रमुख उपनाम इस प्रकार हैं:

        1. रावत
        2. बिष्ट
        3. नेगी
        4. सजवाण
        5. कठैत
        6. फरसवाण
        7. भंडारी
        8. चौहान
        9. राणा
        10. बुटोला
        11. गुसाईं
        12. पंवार
        13. कुंवर
        14. असवाल
        15. रौतेला
        16. रमोल
        17. मियां
        18. कंडारी
        19. रौथान
        20. कार्की
        21. फरत्याल
        22. कठायत
        23. महरा
        24. मेहता

सांस्कृतिक महत्व

गढ़वाल की थोकदार प्रथा न केवल प्रशासनिक व्यवस्था का हिस्सा थी, बल्कि यह सामाजिक संरचना, सांस्कृतिक परंपराओं, और सामूहिक पहचान का भी प्रतीक है। इनकी जिम्मेदारियां और लाभ भले ही बदल गए हों, लेकिन थोकदारों की ऐतिहासिक भूमिका आज भी उत्तराखंड की लोककथाओं और परंपराओं में जीवित है।

 

यह लेख गढ़वाल की थोकदार प्रणाली के ऐतिहासिक, सामाजिक, और सांस्कृतिक पहलुओं को अधिक गहराई से समझने का प्रयास करता है।

 

–मोहित बंगारी 

 

 

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