घंटाकर्ण: बद्रीनाथ के द्वारपाल देवता

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घंटाकर्ण: बद्रीनाथ के द्वारपाल देवता

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       उत्तराखंड की देवभूमि अपने पौराणिक इतिहास और रहस्यमय कहानियों के लिए प्रसिद्ध है। यहां हर मंदिर और धरोहर की अपनी एक अनोखी कहानी है। इन्हीं में से एक रोचक कहानी है घंटाकर्ण या घंडियाल देवता की, जिन्हें बद्रीनाथ धाम का रक्षक माना जाता है। जैसे केदारनाथ में भैरवनाथ जी को मंदिर की रक्षा का भार दिया गया है, वैसे ही घंटाकर्ण को बद्रीनाथ धाम के द्वारपाल के रूप में पूजा जाता है।

 

 

घंटाकर्ण: शिव भक्त राक्षस

घंटाकर्ण का जन्म एक राक्षस के रूप में हुआ था, लेकिन वह बचपन से ही भगवान शिव का परम भक्त था। वह इतना बड़ा भक्त था कि अपने कानों में घंटियां पहन रखी थीं ताकि किसी और देवता का नाम उसके कानों में न पड़े। इसी कारण उसका नाम घंटाकर्ण पड़ा। उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उसे वरदान दिया। घंटाकर्ण ने भगवान से मुक्ति की इच्छा जताई, जिससे शिव ने उसे भगवान विष्णु की शरण में जाने का सुझाव दिया।

 

 

विष्णु की शरण में मुक्ति की खोज

घंटाकर्ण के लिए यह चुनौतीपूर्ण था, क्योंकि वह शिव के अलावा किसी अन्य देवता का नाम भी सुनना नहीं चाहता था। फिर भी, शिव जी के आदेश का पालन करते हुए वह द्वारका पहुंचे, जहां उस समय भगवान विष्णु कृष्ण रूप में अवतरित थे। द्वारका पहुंचकर उसे पता चला कि भगवान कृष्ण कैलाश पर्वत पर भगवान शिव की तपस्या करने गए हैं।

 

 

बद्रीकाश्रम में श्रीकृष्ण का वरदान

कैलाश की ओर बढ़ते हुए घंटाकर्ण आखिरकार बद्रीकाश्रम पहुंचे, जहां श्रीकृष्ण ध्यान में लीन थे। घंटाकर्ण ने नारायण-नारायण का जोर-जोर से जाप करना शुरू कर दिया, जिससे श्रीकृष्ण का ध्यान टूटा। श्रीकृष्ण ने घंटाकर्ण की भक्ति और उसकी मुक्ति की प्रार्थना को सुना और नारायण के रूप में प्रकट होकर उसे राक्षस योनि से मुक्त किया। इसके साथ ही उन्होंने घंटाकर्ण को बद्रीनाथ धाम का रक्षक नियुक्त किया।

 

 

उत्तराखंड के गांव-गांव में घंडियाल देवता की मान्यता

          आज भी घंटाकर्ण को बद्रीनाथ का द्वारपाल माना जाता है और उत्तराखंड के अनेक गांवों में स्थानीय देवता के रूप में घंडियाल देवता की पूजा होती है। इस कथा के माध्यम से हम समझ सकते हैं कि उत्तराखंड की पौराणिक परंपराओं में किस तरह देवता और रक्षक के रूप में विभिन्न पात्रों का महत्व है। 

 

जय घंडियाल देव!

 

       यह कहानी केवल इतिहास नहीं है, बल्कि उत्तराखंड के लोगों की संस्कृति और विश्वास का हिस्सा भी है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी लोगों को अपनी आस्था से जोड़ता है।

 

 

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