कौन हैं माता हिडिंबा? और क्या है उनका पांडवों से रिश्ता?
Mohit Bangari
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मनाली के पास घने देवदार के जंगलों में स्थित हिडिंबा मंदिर का ऐतिहासिक महत्व है। यह मंदिर पगोडा शैली में बना है और इसकी ऊंचाई लगभग 82 फीट है। माता हिडिंबा का संबंध महाभारत काल से माना जाता है, जहां उन्हें मां काली का स्वरूप माना गया है। कहा जाता है कि उन्होंने अपनी शक्तियों से असुरों का नाश किया और महाकाली रूप में प्रकट हुईं। उनके भक्तों में अपार आस्था है और वे उन्हें कुल्लू की आराध्य देवी मानते हैं।
मंदिर का निर्माण और मान्यता
इस मंदिर का निर्माण कुल्लू के राजा बहादुर सिंह ने 1553 में करवाया था। यहां माता की चरण पादुकाओं की पूजा की जाती है। मान्यता है कि तप और त्याग के बाद हिडिंबा राक्षसी कुल से देवी स्वरूप में स्थापित हुईं। आज भी मनाली आने वाला हर पर्यटक उनके दर्शन जरूर करता है। मंदिर का स्थान ऐसा है कि यहां दूर-दूर से श्रद्धालु पहुंचते हैं और माता के प्रति श्रद्धा प्रकट करते हैं।
पांडवों से जुड़ी कथा
महाभारत काल में, जब पांडव वनवास के दौरान मनाली के जंगलों में आए, तब उनका सामना हिडिंब नामक राक्षस से हुआ। हिडिंब की बहन हिडिंबा ने भीम से विवाह किया और उनके पुत्र घटोत्कच का जन्म हुआ। घटोत्कच ने महाभारत युद्ध में पांडवों की सहायता की और बलिदान दिया। माना जाता है कि वनवास के दौरान भीम के साथ विवाह के बाद हिडिंबा मनाली में बस गईं और बाद में तपस्या कर देवी रूप में पूजी जाने लगीं।
कुल्लू दशहरे में माता हिडिंबा का महत्व
कुल्लू दशहरा हिमाचल प्रदेश का एक बड़ा और पवित्र पर्व है, जो पूरे भारत में अपनी अनोखी परंपराओं के लिए जाना जाता है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि इस महोत्सव में माता हिडिंबा का विशेष महत्व है? कुल्लू की आराध्य देवी मानी जाने वाली माता हिडिंबा के बिना यह त्योहार अधूरा माना जाता है। उनका आशीर्वाद ही दशहरे के शुभारंभ का संकेत देता है, और उनके आशीर्वाद के बिना रघुनाथ जी की रथयात्रा का आयोजन नहीं होता है।
कुल्लू दशहरे के दिन सबसे पहले माता हिडिंबा का आगमन होता है। देवी का जुलूस जब कुल्लू घाटी में प्रवेश करता है, तो यह एक खास तरह की परंपरा का हिस्सा बन जाता है। माता हिडिंबा की डोली के साथ घाटी के अन्य देवी-देवता भी दशहरे में शामिल होते हैं, लेकिन सबसे पहले माता हिडिंबा की पूजा होती है। मान्यता है कि उनके आगमन के बिना दशहरा उत्सव शुरू नहीं हो सकता। माता हिडिंबा के आने के बाद ही रघुनाथ जी की रथयात्रा निकाली जाती है, जो इस महोत्सव का सबसे प्रमुख आयोजन होता है।
हिडिंबा का कुल्लू राजघराने से संबंध
हिडिंबा का कुल्लू राजघराने से गहरा रिश्ता है। उन्हें राजघराने की कुल देवी के रूप में पूजा जाता है और कुल्लू के दशहरा उत्सव में भी उनका विशेष स्थान है। ऐसा कहा जाता है कि भगवान कृष्ण ने उन्हें सुझाव दिया था कि यदि वे मनाली में ही रहकर तप करेंगी, तो उन्हें देवी का दर्जा मिलेगा। तपस्या के बाद उन्हें दिव्य शक्तियां प्राप्त हुईं, और राजघराने ने उन्हें अपनी कुल देवी के रूप में अपनाया। दशहरा उत्सव के दौरान, जब देवी कुल्लू पहुंचती हैं, तो राजपरिवार उनकी छड़ी लेकर उनका स्वागत करता है, लेकिन पूरे परिवार को उनसे छिपने की प्रथा है। यह सम्मान का प्रतीक माना जाता है।
हिडिंबा का जन्मोत्सव
माता हिडिंबा का जन्मदिवस हर वर्ष 14 से 17 मई तक धूमधाम से मनाया जाता है। इस अवसर पर मनाली में मेला आयोजित होता है, जिसमें घाटी के अन्य देवी-देवता भी शामिल होते हैं। इस त्योहार को छोटा दशहरा भी कहा जाता है। इस समय मंदिर का वातावरण भक्तिमय हो जाता है और माता का मंदिर भक्तों से भरा रहता है।
आस्था और चमत्कार
घाटी के लोगों की मान्यता है कि माता हिडिंबा उनके संकट दूर करती हैं। दुख और परेशानी के समय लोग माता के दरबार में आते हैं और उनके आशीर्वाद से अपनी समस्याओं का समाधान पाते हैं। माता का आशीर्वाद पाने के लिए लोग दूर-दूर से आते हैं और मंदिर में घंटों लंबी कतारों में खड़े होकर श्रद्धा प्रकट करते हैं।
निष्कर्ष
माता हिडिंबा की कहानी महाभारत काल से शुरू होकर आज भी लोगों की आस्था का केंद्र बनी हुई है। उनके प्रति मान्यता और श्रद्धा इतनी गहरी है कि लोग उन्हें काली का स्वरूप मानते हैं और अपने संकटों में उनसे मदद की उम्मीद रखते हैं। उनकी कहानी महाभारत के पन्नों से निकलकर मनाली के इस मंदिर में जीवंत हो उठती है, जहां हर साल हजारों लोग माता के दर्शन के लिए आते हैं।
–मोहित बंगारी
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