आखिर क्यों मनाई जाती है उत्तराखंड में इगास बग्वाल?

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उत्तराखंड में इगास बग्वाल

      उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में दिवाली के ग्यारह दिन बाद इगास बग्वाल का त्योहार मनाया जाता है। इस खास पर्व के पीछे ऐतिहासिक और सांस्कृतिक कहानियाँ हैं, जो इसे अनोखा और महत्वपूर्ण बनाती हैं। इस लेख में हम जानेंगे कि इगास बग्वाल क्यों मनाई जाती है और इसके पीछे कौन-कौन से कारण छिपे हैं।

 

इगास बग्वाल का महत्व

      इगास बग्वाल केवल एक त्यौहार ही नहीं, बल्कि गढ़वाल के लोगों के गौरव और इतिहास से जुड़ा है। यह पर्व परंपराओं और वीरता की कहानियों को संजोए हुए है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है। दिवाली की तरह, इस दिन भी लोग दीये जलाकर खुशियाँ मनाते हैं और पारंपरिक खेल खेलते हैं।

 

कब मनाई जाती है इगास बग्वाल?

      इगास बग्वाल कार्तिक मास की शुक्ल एकादशी के दिन मनाई जाती है, जो दीपावली के ग्यारह दिन बाद होती है। इस दिन को गढ़वाल क्षेत्र में बड़ी धूमधाम और उत्साह के साथ मनाया जाता है। 2024 में, इगास का त्यौहार 12 नवंबर को मनाया जाएगा।

 

इगास बग्वाल क्यों मनाई जाती है दिवाली के बाद?

       गढ़वाल में यह मान्यता है कि जब भगवान राम अयोध्या लौटे थे, तब पूरे देश में अमावस्या को दिवाली मनाई गई थी। लेकिन गढ़वाल के पहाड़ों में भगवान राम के वापस लौटने की खबर 11 दिन बाद पहुंची। इस देरी की वजह से, यहाँ के लोगों ने दिवाली के ग्यारह दिन बाद इस पर्व को मनाने का निर्णय लिया। इसी कारण इसे “बूढ़ी दिवाली” या “इगास बग्वाल” कहा जाता है।

 

इगास का वीरता और साहस से संबंध

       इगास बग्वाल को वीर माधो सिंह भंडारी की वीरता से भी जोड़ा जाता है। माधो सिंह भंडारी गढ़वाल के महान सेनापति थे, जिन्होंने तिब्बत के राजा के साथ एक ऐतिहासिक युद्ध लड़ा। गढ़वाल रियासत के राजा महिपति शाह ने आदेश दिया था कि दीपावली से पहले युद्ध जीतकर सेना श्रीनगर लौट आए। लेकिन युद्ध के चलते माधो सिंह दीपावली तक नहीं लौट पाए। उनके वापस आने की खबर भी समय पर नहीं पहुँची, जिसके कारण लोगों ने मान लिया कि गढ़वाली सेना युद्ध में शहीद हो गई है और इस कारण दिवाली नहीं मनाई गई।

जब माधो सिंह और उनकी सेना की विजय की खबर आई और वे श्रीनगर लौटे, तो पूरे राज्य में खुशी का माहौल बन गया। दिवाली के ग्यारह दिन बाद राजा ने उत्सव मनाने की घोषणा की, जिससे इगास बग्वाल का आगाज़ हुआ। तभी से यह परंपरा चली आ रही है, और हर साल इसे यादगार तरीके से मनाया जाता है।

 

इगास बग्वाल की खास परंपराएँ

      इगास बग्वाल में दीप जलाने के साथ ही पारंपरिक खेल “भैला” खेलने की प्रथा है। इस खेल में ग्रामीण लोग जलते हुए बाँस के टुकड़ों को घुमाकर एक-दूसरे के साथ खेलते हैं। इसके साथ ही इस दिन गाँवों में गायों और बैलों की पूजा की जाती है। यह पशुओं के प्रति सम्मान और आभार प्रकट करने का तरीका है, जो कृषि और जीवन के लिए महत्वपूर्ण हैं।

 

इगास बग्वाल और लोकगीत

      इगास बग्वाल के समय गढ़वाल क्षेत्र में लोकगीतों का विशेष महत्व होता है। इन गीतों में वीर माधो सिंह की कहानियाँ सुनाई जाती हैं। “बारह ए गैनी बग्वाली, मेरो माधी नि आई” जैसे गीतों के माध्यम से लोग उनकी वीरता को याद करते हैं और अपने पूर्वजों की गौरवशाली विरासत का सम्मान करते हैं।

 

निष्कर्ष

      इगास बग्वाल केवल एक पर्व नहीं, बल्कि गढ़वाल के लोगों की संस्कृति, परंपरा और इतिहास का प्रतीक है। दिवाली के ग्यारह दिन बाद मनाया जाने वाला यह त्योहार पहाड़ों की धार्मिक मान्यता, वीरता की गाथा और प्रकृति के प्रति सम्मान को दर्शाता है। उत्तराखंड में इसे धूमधाम से मनाया जाता है, और इसे मनाने का उत्साह गढ़वाल की अनूठी पहचान को संजोए रखने में मदद करता है।

 

    इगास बग्वाल एक ऐसी परंपरा है जो उत्तराखंड के लोगों को उनके इतिहास, वीरता और सांस्कृतिक धरोहर से जोड़े रखती है।

 

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